कल रात गए ऐन-ए-तरब के हंगाम
ये बज़्म-गीर अमल है बे-नग़्मा-ओ-सौत
ममनूअ शजर से लुत्फ़-ए-पैहम लेने
ख़ुद से न उदास हूँ न मसरूर हूँ मैं
ग़ुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है
आज़ादि-ए-फ़िक्र ओ दर्स-ए-हिकमत है गुनाह
क़ानून नहीं कोई फ़ितरत के सिवा
मेरे कमरे की छत पे है उस बुत का मकान
हर इल्म ओ यक़ीं है इक गुमाँ ऐ साक़ी
थे पहले खिलौनों की तलब में बेताब
बाक़ी नहीं एक शुऊर रखने वाला
बाग़ों पे छा गई है जवानी साक़ी