जीना है तो जीने की मोहब्बत में मरो
ग़ार-ए-हस्ती को नीस्त हो हो के मरो
नौ-ए-इंसान का दर्द अगर है दिल में
अपने से बुलंद-तर की तख़्लीक़ करो
Habib Jalib
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हर इल्म ओ यक़ीं है इक गुमाँ ऐ साक़ी
बंदे क्या चाहता है दाम-ओ-दीनार
ममनूअ शजर से लुत्फ़-ए-पैहम लेने
औरों को बताऊँ क्या मैं घातें अपनी
थे पहले खिलौनों की तलब में बेताब
आज़ादि-ए-फ़िक्र ओ दर्स-ए-हिकमत है गुनाह
क्या तब्ख़ मिलेगा गुल-फ़िशानी कर के
कल रात गए ऐन-ए-तरब के हंगाम
हर रंग में इबलीस सज़ा देता है
ये बज़्म-गीर अमल है बे-नग़्मा-ओ-सौत
नागिन बन कर मुझे न डसना बादल
ज़ब्त-ए-गिर्या