बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
ये भी इक नौअ' की हिमाक़त है
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मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मिरी
है ग़लत गर गुमान में कुछ है
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मेरी
मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
कहते न थे हम 'दर्द' मियाँ छोड़ो ये बातें
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
जी की जी ही में रही बात न होने पाई