ला-रैब बहिश्तियों का मरजा है ये
पुतली की तरह नज़र से मस्तूर है तू
खींचे मुझे मौत ज़िंदगानी की तरफ़
अब ख़्वाब से चौंक वक़्त-ए-बेदारी है
अख़्तर से भी आबरू में बेहतर है ये अश्क
कुछ मुल्क-ए-अदम में रंज का नाम न था
हो जाती है सहल पेश-ए-दाना मुश्किल
आँख अब्र-ए-बहारी से लड़ी रहती है
बे-जा नहीं मद्ह-ए-शह में ग़र्रा मेरा
सोज़-ए-ग़म-ए-दूरी ने जला रक्खा है
गुलज़ार-ए-जहाँ से बाग़-ए-जन्नत में गए
बादल आ के रो गए हाए ग़ज़ब