किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है

किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है

किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है

जिस नूर से पुर-नूर ये नूर-ए-नज़री है

आमद ही में हैरान क़यास-ए-बशरी है

ये कौन सी तस्वीर-ए-तजल्ली से भरी है

गो हुस्न का रुत्बा नहीं मज़कूर हुआ है

मिम्बर मिरा हम-मर्तबा-ए-तूर हुआ है

सद शुक्र कि मज्लिस मरी मुश्ताक़-ए-सुख़न है

ये फ़ैज़-ए-इनायात-ए-हुसैन और हसन है

फिर जोश-ए-जवानी पे मरी तब्अ-ए-कुहन है

ये क़ुव्वत-ए-इमदाद शह-ए-तिश्ना-दहन है

नक़्क़ाश में ये सनअत-ए-तहरीर नहीं है

तस्वीर दिखाता हूँ ये तक़रीर नहीं है

नक़्क़ाश तो करता है क़लम ले के ये तदबीर

इक शक्ल नई सफ़्हा-ए-क़िर्तास पे तहरीर

इंसाफ़ करो किल्क-ए-ज़बाँ से दम-ए-तहरीर

मैं सफ़्ह-ए-बातिन में रक़म करता हूँ तस्वीर

सौ रंग से तस्वीर मुसव्विर ने भरी है

रनीगीनि-ए-मज़मूँ की कहाँ जल्वागरी है

तस्वीर में उस शख़्स की हूँ तुम को दिखाता

जो सानी महबूब-ए-इलाही है कहाता

इक नूर जो जाता है तो इक नूर है आता

वज्ह-ए-अदम साया-ए-अहमद हूँ सुनाता

था ब'अद-ए-मोहम्मद के जो आया अली अकबर

था अहमद-ए-मुख़्तार का साया अली अकबर

याँ तक सुख़न-ए-ताज़ा किया तब्अ ने पैदा

वो नूर-ए-नबी और नबी नूर-ए-ख़ुदा का

ये सिलसिला-ए-नूर कहाँ जा के है पहुँचा

अकबर को जो देखा तो बताओ किसे देखा

वल्लाह ज़ियारत का सज़ा-वार है अकबर

नेमुल-बदल अहमद-ए-मुख़्तार है अकबर

लेकिन तुम्हें तस्वीर ये करती है इशारत

हाँ मजलिसियाँ रोज़ा-ए-जन्नत की बशारत

हो महव-ए-तहारत है अगर क़स्द-ए-ज़ियारत

है लाज़िम-ओ-मलज़ूम ज़ियारत को तहारत

इस क़स्द पे बैठे हो जो साहिब-ए-नज़रो तुम

तज्दीद-ए-वज़ू अश्क के पानी से करो तुम

लिखा है कि थी हज़रत-ए-शब्बीर को आदत

होती थी नमाज़-ए-सहरी से जो फ़राग़त

पहले अली अकबर ही को बुलवाते थे हज़रत

फ़रमाते थे करता हूँ इबादत में इबादत

रौशन हो न क्यूँ चश्म-ए-हुसैन इब्न-ए-अली

करता हूँ ज़ियारत में जमाल-ए-नुब्वी की

करते अली अकबर तो झुका फ़र्क़ को मुजरा

हर मर्तबा मिल जाता था पाँव से सर उन का

ताज़ीम को होते थे खड़े सय्यद वाला

कहते अली अकबर कि ये क्या करते हो बाबा

शहि कहते थे आदत थी ये महबूब ख़ुदा की

ताज़ीम वो करते थे बतूल अज़्रा की

ए जान पिदर है मुझे वाजिब तिरी तौक़ीर

तो सर से क़दम तक है मरे नाना की तस्वीर

तब जोड़ के हाथों को वो नो बादा शब्बीर

गर्दन को झुका श्रम से करता था ये तक़रीर

बस ख़त्म शराफ़त हुई फ़र्र ज़िंदा अली

रखा है क़दम आप ने दोष नबवी पर

तब लेते थे पेशानी का बोसा शहि ज़ीशान

कहते थे कि शीरीं सख़्ती पर तिरी क़ुर्बान

ज़ैनब ने सुने राज़-ओ-नयाज़ उन के ये जिस आन

चलाई कि दोनों पे तसद्दुक़ हो मरी जान

देखा ना कोई बाप अगर इबन अली सा

बेटा भी सुना है कोई हमशकल नबी सा

सन लो अली अकबर की ज़यारत का क़रीना

पहले तो कुदूरत से करो साफ़ ये सीना

फिर दीदा-ए-बातिन को करो दीदा-ए-बीना

ता जलवा नुमा हो रुख़ सुलतान मदीना

मालूम हुआ सफ़ा-ए-कुरां अली अकबर

तहक़ीक़ हुआ काबा-ए-ईमां अली अकबर

क़ुरआन की तशबीया ये इस दल ने बताई

पेशानी अनवर है कि है लौह तिलाई

अब्रू से है बिसमिल्लाह कुरां नज़र आई

जदूल शश ज़ुल्फ़ की बालों ने दिखाई

वो ज़ुल्फ़ वो बीनी अलिफ़-ओ-लाम रक़म है

पर मीम दहन मिल के ये इक शक्ल अलम है

और काअबा दुल्हा की ये तमसील है अज़हर

ये ख़ाल सय है हिज्र अलासोद ज़ेवर

महिराब हिर्म पेशे नज़र अबरवे अकबर

ये चाह-ए-ज़क़न है चह ज़मज़म के बराबर

इस बीनई अक़्दस का मुझे ध्यान गुर आया

काअबा में धरा नूर का मिंबर नज़र आया

देखो कि सफ़ा है रुख़ अकबर से नुमायां

यां सुई में हरदम है दिल ज़ैनब नालां

काअबा जो सय पोश है ए साहिब इरफ़ां

यां भी रुख़ अनवर पे हैं गीसवे परेशां

इस ज़ुल्फ़ में पाबंद दिल शाह उनम है

ज़ंजीर में काबे की ये क़ंदील हिर्म है

क्या क़दर कोई पाए मुबारक की मुनारे

ये रुकन हैं काअबा के अर फ़हम ख़ुदादे

इंसाफ़ करो तुम को ख़ुदा उस की जज़ा दे

इस रुकन को यूं उम्मत बेदीन गिरा दे

हज तुम ने किया काबे का जब चशम इधर है

मानी हज्ज-ए-अकबर के यही हैं जो नज़र है

सब आते हैं काबे ने ये है मर्तबा पाया

ये क़िबला-ए-ईमान हिदायत का जो आया

आहूए हरम जान के मजरूह बनाया

और ख़ून का दरिया था हर इक सिम्त बहाया

क़ुर्बानी हो काबे में ये फ़रमान ख़ुदा है

ये काअबा तो उम्मत ही ये क़ुर्बान हुआ है

हुस्न अली अकबर तो सुनाया नहीं जाता

कुछ दिल ही मज़ा चशम तसव्वुर में पाता

इस क़द का अगर बाग़ में मज़कूर है आता

तब सर्व अनगशत-ए-शहादत को उठाता

पेशानी तू आईना लबरेज़ सफ़ा है

अब्रू है कि ख़ुद क़िबला है और क़िबलानुमा है

मानिंद दाये सहरी क़द रसा है

माथा है कि दीबाचा अनवार ख़ुदा है

दो ज़ुल्फ़ ने इक चांद सा मुँह घेर लिया है

वस्ल शब क़दर-ओ-शब मेराज हुआ

दो ज़ुल्फ़ें हैं रुख़सार दिल अफ़रोज़ भी दो हैं

हाँ शाम भी दो हैं बह ख़ुदा रोज़ भी दो हैं

है चशम सय बसक़ि तहा अबरवे ख़मदार

सौ पंचा-ए-मझ़गां को उठाए तन बीमार

महिराब के नीचे ये दुआ करते हैं हरबार

इस चशम जहां हैं को ना पहुंचे कोई आज़ार

गेसू नहीं ये सुंबुल फ़िर्दोस निशां हैं

ये चशम नहीं नर्गिस शहलाए जहां हैं

होंटों से कहो दी जो अतश की है नमूदार

होता है धुआँ आतिश याक़ूत से इज़हार

ग़ुस्से से जो अब्रू में शिकन पड़ती है हरबार

बाला उसे समझे हैं सर्द ही का वो कुफ़्फ़ार

अब्रू जो हर इक मोय मुबारक से भरा है

एजाज़ से शमशीर में नेज़ों को धरा है

इस अबरोव बीनी में पाई गई सूरत

जिस तरह मह ईद पे अनगशत-ए-शहादत

शम्मा हिर्म हक़ ने किया साया-ए-वहदत

गौहर ये नया लाया है ग़व्वास तबीयत

मतबू हर इक शक्ल से पाया जो रक़म को

यां रख दिया नक़्क़ाश दो आलम ने क़लम को

ख़त जलवा नुमा आरिज़ गुलगों पे हुआ है

मसहफ़ को किसी ने वर्क़ गुल पे लिखा है

ये चशम ये क़द हुस्न में एजाज़ नुमा है

हाँ अहल-ए-नज़र सर्व में बादाम लगा है

तीरों से सिवा तरकश मझ़गां का असर है

दुश्मन के लिए रेज़ा-ए-अलमास जिगर है

कानों का ता ज़ुल्फ़ मुसलसल है इशारा

दो फूल हैं सुंबुल में निहां वक़्त नज़ारा

किस को सिफ़त हुस्न बना गोश का यारा

ख़ुरशीद से देखो तो टपकता है सितारा

चेहरा ग़र्क़ आलूदा दम सफ़ शिकनी है

ख़ुरशीद पे हर क़तरा सुहेल मैनी है

ख़ुरशीद पे हर क़तरा सहल यमनी है

बर्गशता मुज़ा उस की ये करती है इशारे

गर गशतगी उम्र के सामान हैं सारे

मझ़गां के ये नेज़े जो ख़मीदा हुए बारे

धड़का है कि नेज़ा कोई अकबर को ना मारे

यकचशम ज़दन में जो फ़लक इस से फिरेगा

इस चशम के मानिंद ये नेज़ों से घिरेगा

लब हैं कि है दरयाए लताफ़त बह सिरा औज

इस औज में पैदा यम क़ुदरत की हुई मौज

हैं फ़र्द नज़ाकत में मगर देखे में ज़ौज

दो होंट हैं और प्यास की है चारों तरफ़ फ़ौज

बंद आँखें हैं लब ख़ुशक हैं और आलिम ग़श है

और मुँह में ज़बां माही दरयाए अतश है

किस मुँह से करे अब कोई मदह दर्द नदां

कुछ क़दर नहीं दर अदन की जहां चंदाँ

तारे से चमकने लगे जिस दम हुए ख़ंदां

मुज़म्मों ये है काबुल दुशवार पसनदां

ये क़ायदा कली है ना हो मदह बशर से

कली कोई जब तक ना करे आग गुहर से

गर्दन है कि फव्वारा-ए-नूर अज़ली है

ये दोष तो हमदोश बदोश नबवी है

सीना है कि आईना वज़ा अहदी है

दिल साफ़ नज़र आता है आईना यही है

इन साअदो साक़ीन के रुतबे कहो क्या हैं

ये चार मगर माही दरयाए सफ़ा हैं

पशतीनों से ये पुश्त है हमपुशत पयंबर

लेकिन शहि मज़लूम चढ़े पुश्त नबी पर

ये पुश्त पे शब्बीर की बैठा है मुकर्रर

ले फ़र्क़ से ताना खिन्न पा नूर सरासर

क्या फ़र्क़ है मूसा में और इस माहलिक़ा में

वां हाथ में और यां यद-ए-बैज़ा कफ़-ए-पा में

और तन पे सलाह ख़रबी ख़ूबी सजा है

ये ख़ुद नहीं साया इफ़ज़ाल ख़ुदा है

नेज़ा नहीं शब्बीर का ये दस्त दुआ है

या बानवे मग़्मूम की फ़र्याद रसा है

चार आईने में चार तरफ़ अक्स पड़े हैं

या बहर मद पंच तन पाक खड़े हैं

शब्बीर तो इस के तन आरिज़ पे फ़िदा है

ज़ैनब का तो पूछो ना जो कुछ हाल हुआ है

आबिद को क़लक़ उस की जुदाई का बड़ा है

बानो का तो सर ख़ाक ये इस ग़म से झुका है

ये चार नहीं फूल हो तज़ईन सुपर हैं

बालाए सुपर चारों के ये दाग़ जिगर हैं

ये तेग़ किलीद दर इक़बाल-ओ-ज़फ़र है

हर सिम्त को वा जिस के लिए ज़ख़म का दर है

हलक़ा ये ज़रा का नहीं तन रशक क़मर है

सौतन से मिला दीदा-ए-अर्बाब नज़र है

घोड़ा तो है ख़ाकी पे ख़मीर आब-ए-बक़ा है

गर्मी में जो आतिश है तो स्रात में हुआ है

में चशम तसव्वुर में लगा खींचने तस्वीर

बस ज़हन में स्रात से ना ठहरा किसी तदबीर

जब बंदिश-ए-मज़्मून में बांधा दम तहरीर

दिन क्लिक ने आवाज़ परी को क्या तसख़ीर

ढीली जो हुई बाग तसव्वुर की उधर से

जूं उम्र रवां होगया मादूम नज़र से

इस घोड़े की स्रात कहो क्यों कर करूं मर्क़ूम

जूं हर्फ़-ए-ग़लत हर्फ़ हुए जाते हैं मादूम

कौनैन में ये तीर रवी य जो हैं मफ़हूम

यां होता है मालूम ना वां होता है मालूम

मर्क़ूम शना सफ़ा-ए-काग़ज़ पे जहां हो

हर हर्फ़ वहीं मोर्चे की तरह रवां हो

क्यों मोमिनो तस्वीर पयंबर नज़र आई

लेकिन तुम्हें किस वक़्त में सूरत ये दिखाई

जब बाप में और बेटे में होती है जुदाई

बस ख़ुश हैं कि हम ने भी रज़ा जंब की पाई

ख़ुद क़ैद मुसीबत से तो आज़ाद हुए हैं

माँ बाप यहां मुफ़्त में बर्बाद हुए हैं

अठारवां साल होगया ऐसा उसे भारी

ये तेग़ नज़र किस की उसे लग गई कारी

माँ बाप की बर्बाद हुईं हसरतें सारी

यूं सामने से चांद सी तस्वीर सुधारी

हसरत का मुरादों का ये अरमान का दिन था

अठारह बरस पाल के ये मौत का सन था

माँ हती थी बेटा मुझे पिसा अपने बुलाओ

शहि कहते थे इस सीने की आतिश को बुझाओ

सज्जाद ये चलाते थे बिस्तर से उठाओ

कहती थी सकीना मुझे टोपी तो पनहाओ

ज़ैनब यही कहती थी कि ए साहबो किया है

अठारह बरस वाला भी मरने को चला है

अकबर का ये आलम है कि बस रूबा क़ज़ा हैं

इक मुंतज़िर आमद शाह शुहदा हैं

कहने से जो छुटते हैं तो मशग़ूल बका हैं

जिस रोज़ से पैदा हुए वो नूर ख़ुदा हैं

इस रोज़ से माँ बाप की छाती के तले हैं

और आज निकलते हैं तो मरने को चले हैं

बेटा तो उधर वास्ते मरने के सुधारा

यां शाह ने सर चौब दर ख़ेमा से मारा

बानो ने इधर बॉय पिसर जब कि पुकारा

घूँसा सा लगा आ के कलेजे में दोबारा

कहते हैं कि हैं सामने जाते अली अकबर

लेकिन नहीं हम को नज़र आते अली अकबर

हैं ख़ाक पे बैठे हुए और फ़र्क़ झुका है

फ़रमाते हैं ये मस्नद शाह शुहदा है

गा सर को उठाकर यही मज़मून दुआ है

ले आज ये बेटा भी तिरी नज़र किया है

राज़ी हूँ में तो दाग़ पिसर दीजियो मुझ को

पर शर्त ये है सब्र अता कीजियो मुझ को

उद्दिनी तरह बंदा हूँ हो ताक़त मरी किया है

इस दाग़ का दिल हो मुतहम्मिल तो मज़ा है

मेरा भी तो अब कोवच का सामान लगा है

दो-चार घड़ी का ये पस-ओ-पेश ज़रा है

बानो पे अजब तरह की आफ़त ये पड़ी है

यारब तिरी लौंडी की मुझे फ़िक्र बड़ी है

आई थी यहां छोड़ के शाही को वो दिल गीर

सौ तूने दिया था शरफ़ बिस्तर शब्बीर

आज़ाद किया लौंडियों को दे दे के जागीर

बेटा जो मिला था सौ मुहम्मद की थी तस्वीर

हाँ एक ये दौलत उसे इमदाद हुई है

सौ हाथ से उम्मत के वो बर्बाद हुई है

है बाज़ू को था नब्बे हुए कुम्बा मिरा सारा

कहती है कि लोगो कहो आया मिरा प्यारा

नेज़ा तो अभी उस को किसी ने नहीं मारा

जीता है तो फिर क्यों मुझे अब तक ना पुकारा

अब मौत के फंदे में मिरा माहजबीं है

ले मेरे तो इक आन उसे चैन नहीं है

हंसते हुए आते थे जो रुख़स्त के इरादे

कहते थे कि अम्मां तुम्हें अब सब्र ख़ुदा दे

मैंने कहा आहिस्ता से सर अपना लगा दे

वारी गई अल्लाह तिरी प्यास बुझा दे

रुख़स्त का सुख़न देख निकलते हुए लब से

की थी अभी क्या क्या मुझे तस्लीम अदब से

ए साहबो अब ख़ाक पे बानो को बिठा दो

काली कफ़नी हो तो मुझे ला के पिनहा दो

इस कोख पे अब ख़ाक का फ़ाया भी लगा दो

जिस राह गया हो वो मुझे राह बता दो

इस धूप में राही वो मिरा लाल हुआ है

अब प्यास से किया जानीए क्या हाल हुआ है

ज़ैनब ने कहा हाय कहाँ जाओगी भाबी

रोके दर ख़ेमा को खड़े हैं शहि आली

असग़र तरह मरता है उठाले उसे बीबी

बानो ने कहा आह ख़बर है मुझे किस की

असग़र से तो उम्मीद नहीं चंद नफ़स की

लुटती है कमानी मरी अठारह बरस की

है यास का ये सामान सुनो दश्त का सामां

वां जाते हैं ख़ुश ख़ुश अली अकबर सोए मैदां

सब अर्श अलहि की सी शौकत है वही शॉं

आता है बड़ी धूम से जैसे कोई सुल्तां

कहता है नक़ीब अजल इंसाफ़ की जाहे

देखो कि जवाँ मरने को क्या शेर चला है

इक सिम्त रकाब उस की है थामे हुए हशमत

और इक तरफ़ बाग को पकड़े हुए नुसरत

शातिर की तरह आगे क़दम मारुति दौलत

इक़बाल-ओ-ज़फ़र चतर लगाए पिए ख़िदमत

इक नूर से हर चार तरफ़ दश्त भरा है

और हुस्न ने ख़ुद गासिया कांधे पे धरे

ना लाख में रोब की आमद है ना सौ हैं

दिल थामे हुए अहमद मुख़तार जिलौ में

रूह असदुल्लाह चली आती है रो में

और फ़ातिमा रहवार के पीछे तग-ओ-दौ में

लिपटी हुई बस गर दसवारी से उसी की

आती है चली जान हुसैन इबन अली की

वां फ़ौज में हैरत से हर इक शख़्स से तकता

हरदार को सकता है कि बस हल नहीं सकता

कहता है कि देखो तो है क्या नूर चमकता

हर उज़ू से है हुस्न ख़ुदादाद टपकता

क्या नूर है क्या दबदबा किया जलवागरी है

ख़ुरशीद भी यां मिसल चिराग़ सहरी है

हम केसर रुम उस को जो समझें तो बह जा है

फ़ग़फ़ूर कहीं चीन का तो इस से सिवा है

ख़ाक़ान हतन गिर कहीं उस को तो ख़ता है

जिन कहीए तो जिन में ये कहाँ हुस्न-ओ-ज़िया है

वल्लाह ख़ुशा बाप कि ये जिस का ख़लफ़ है

पैदा है श्रॉफ है कि ये दर नजफ़ है

नज़रें दो उसे चल के और इस फ़ौज में लाओ

मह्कूम हो तुम सब उसे सरदार बनाओ

ये चतर मुरस्सा सर अक़्दस पे लगाओ

शब्बीर को बुलवा के ये सूरत तो दिखाओ

करते हैं बहुत फ़ख़र घराने पे नबी के

बस यां ये मुक़ाबिल है हुसैन इबन अली के

बेहतर है जो बुलवा के कहो क्यों शहि तन्हा

था हुस्न का अकबर के निहायत तुम्हें दावा

अब ला के खड़ा दोनों को करदीजीए यकजा

दुनिया में पड़े बंदा-ए-अल्लाह हैं क्या किया

गो हुस्न का अकबर के भी उनवान यही है

क्यों उषा ज़ीशान कहो शान यही है

तशवीश में थी फ़ौज कि इस में अली अकबर

करने लगे मैदां में रजज़ ख़वानीयाँ बढ़ कर

हूँ यूसुफ़ गुल पैरहन सबुत पयंबर

जूयाए ख़िज़ाँ चमन हसरत मादर

नन्हियाल से लोधयाल से ये हसब-ओ-नसब है

इक शाह अजम एक शहनशाह अरब है

सुलतान कफ़न पोश हूँ दर हक़ का सनासा

नाशाद हूँ निकला नहीं दर मान ज़रा सा

पोता शहि मरदां का हूँ कसर का नवासा

मज़लूम का मज़लूम हूँ और प्यासे का प्यासा

तस्वीर मरी जलद मिटाओ कोई आकर

बिरछी मरे सीने पे लगाओ कोई आकर

ये सुनते ही लश्कर में तलातुम हुआ इक बार

सोचे कि यही है पिसर हैदर-ए-कर्रार

तरग़ीब में तो था उम्र साद बदअतवार

पर मुस्तइद क़तल हुआ एक ना ज़िनहार

कहते थे अगर लाशे पे लाशे ही पड़ेंगे

इस जान जहां से ना लड़ेंगे ना लड़ेंगे

लेकिन यहां अकबर है दिल में यही बस ध्या

इस क़ौम के हाथों से हुए क़तल चचा जान

वल्लाह कि हैं गीर से बदतर ये मुस्लमान

इंसान जो होते तो हमें जानते इंसान

है दिल में जो अरमान भर इसुफ शिकनी का

ले नाम अली क़िस्सा करो तेग़ ज़नी का

बस दोष से चला वो कमां का जो उतारा

चले को बना गोश तिलक खींचा क़ज़ा रा

था आरिज़-ओ-पैकान-ओ-कमां का ये इशारा

ख़ुरशीद है और क़ौस है और इस में सितारा

और इस का ये स्रात से चला वार के ऊपर

पैकान था एक एक के रहवार के अज़ पर

अकबर ने कहा है मिरा मशहूर घराना

दस्तूर नहीं पहले कोनी वार लगाना

वाजिब हुआ तुम पर मुझे तलवार चलाना

क्यों ज़ालिमो यूं ऑल मुहम्मद को मिटाना

तुम सब को करों क़तल मरे सामने क्या हो

पानी मुझे मिल जाये तो पड़ने का मज़ा हो

ज़ख़मी हुई सब फ़ौज तो ग़ुस्सा उन्हें आया

झुँझला के लानियों ने निशानों को बढ़ाया

जलवा इलमों ने बह सर फ़ौज दिखाया

यां रानों में शहज़ादे ने घोड़े को दबाया

हस्ती को जलाता था फ़क़त नूर का शोला

था जलवा नाचा तरफ़ तौर का शोला

अब्र सय फ़ौज का ऐसा हुआ तग़यां

हो चांद हुसैन इबन अली का हुआ पिनहां

मैदां में उठा था गुबार सिम असपां

तारीक हुआ दीदा-ए-ख़ुरशीद दरख़शां

जाती थी चली जान अदुव्व छोड़ के तन को

अकबर ने सिया सूज़न मझ़गां से कफ़न को

नेज़े से कहीं ज़ख़म लगाता कहीं शमशीर

बीनी कहीं अब्रू की कहीं चशम की तस्वीर

था बसका तमाशाई वो नोबादह शब्बीर

ख़ुरशीद की ऐनक को धरे था फ़लक पैर

चार आईना यूं तोड़ के नेज़ा वो इधर जाये

जिस तरह कि ऐनक से निगह साब गुज़र जाये

था आब दम-ए-तेग़ से तूफ़ान का अस्बाब

थी मौज फ़ना सर से गुज़रता था पड़ा आब

दरिया था वो लश्कर तो हर इक हकला था गर्दाब

आज़ए बुरीदा सिफ़त माही बे आब

आब दम-ए-ख़ंजर पे इलम दारों के दम थे

जब तेग़ लिम की तो इलम साफ़ क़लम थे

यूं मियान के दरमयान से बाहर हुई तलवार

जूं फूट के बाहर निकल आए बदन ख़ार

इक क़तरा-ए-आब उस को जो काए सज़ावा

आतिश मगर इस आब से होती थी नमूदार

था सर्वदा नेज़ा पे हुआदार बदों को

वो सर्व गिराता था मगर सर वक़दों को

शमशीर जो थी रंग में अलमास की तमसाल

मर्जान की थी शाख़ कि बस ख़ूँ से हुई लाल

तीरों के लईनों के तवातर पे चले भाल

मानिंद ज़रा थीं सुपरें हाथों में ग़र्बाल

थी चशम ज़र्द पोश शुजाअत के जो बिल में

इक दम में गिरफ़्तार हुए दाम अजल में

थे कासा-ऐ सर दुश्मनों के ठोकरें खाते

वो तुख़्म शुत्र मुर्ग़ की सूरत नज़र आते

तीरों के उक़ाब अपनी ये सूरत हैं दिखाते

तामा जिगर लश्कर आदा का बनाते

मजरूह बस इक तीर में सौ सौ का जिगर हो

जिस तरह कि सौदानों में रिश्ते का गुज़र हो

इक आन में लश्कर मुतफ़र्रिक़ हुआ सारा

इक जा पे ठहर कर हुआ इजमा दोबारा

नारा पिसर साद ने सरदारों को नमारा

अकबर से करो मकर कोई जलद ख़ुदारा

ज़ोर इस में हैं तीन और अकेला ये जरी है

हैदर है पयंबर है हुसैन इबन अली है

दो शख़्स थे लश्कर में अराकीन के मशहूर

था इबन अली इक तो इक सालिह मग़रूर

उस्ताद अरब थे फ़न नेज़ा में वो मक़हूर

कुछ मश्वरा कर करके वो लश्कर से हुए दूर

इक रूबरू अकबर की ज़द विक्षत पर आया

नेज़े को हिलाता हुआ इक पुश्त पर आया

दोनों से ग़रज़ चलने लगे नेज़ा ख़ूँ ख़ार

गह इस का गहे इस का खड़े रोकते थे वार

इक बर्क़ उलटती थी पलटती थी हर इक बार

घोड़ा था दिया कल का बनाया हुआ रहवार

नेज़ा वो ना था शाला-ए-हवाला हुआ था

गर्द रुख़सार अजब बाला हुआ था

कहते थे मुलक जुर्रत अकबर ये फ़िदा हैं

गोया अह्द यदर में महबूब ख़ुदा हैं

जिन कहते थे ख़ुद आज अली करम दुआ हैं

दो दो से तो लड़ते हैं मगर होश बह जाहें

हूरें यही कहती थीं कि ज़हरा जो रज़ा दें

कौसर का भरा जाम अभी ला के पिला दें

हूरों से ये फ़रमाती थीं ख़ातून क़ियामत

इक आध घड़ी आवर है ये प्यास की शिद्दत

क्या होवेगी इस मादर ग़मदीदा की हालत

इस लाल के लेने को गए शाह वलाएत

इक दम में कलेजा ये सनां खाता है अकबर

हूरो लब कौसर पर चला आता है अकबर

यां वार किया पुश्त पे सालिह ने क़ज़ारा

अकबर ने पलट कर वहीं नेज़ा उसे मारा

इतने ही पलटने ने ग़ज़ब कर दिया सारा

बस सर के बिल आया ना रहा सांस का यारा

वां शाह गिरे बानो को ग़श आगया घर में

इक नेज़े ने सूराख़ किए तीन जिगर में

जब तोड़ कलेजे का गया पुश्त में भाला

थर्रा गए अकबर तो उठा सीने से नाला

अल्लाह री जुर्रत वहीं नेज़े को निकाला

ग़श आगया हर चंद बहुत दिल को सँभाला

जब छाई इजलास दिल मायूस के ऊपर

किस यास से सर रख दिया क़रबोस के ऊपर

थीं बिरछीयां भी नेज़े भी तलवारें भी हरसू

इमामा भी पुर्जे़ हुआ कट कट गए गेसू

कहते थे कि आती नहीं बाबा की कहीं बू

की घोड़े ने अपने से बचाने में तग-ओ-दो

वारिस तो ना था कोई बह जुज़ पंजतन इस का

जिस तरह से चाहा किया टुकड़े बदन उस ए

शादी से लगे चार तरफ़ लोग उछलने

इस शोर में दी कोच की आवाज़ दहल ने

कहते थे कि मत दीजियो ज़ख़मी को निकलने

बस बाग पकड़ ली वहीं घोड़े की अजल ने

पाता ना कहीं राह निकलने को वहां था

घोड़ा सिफ़त तख़्ता ताबूत रवां था

यां शाह को नागा दिल अकबर ने निदा दी

क्या बैठे हो वां बजते हैं नक़्क़ारा शादी

नाना की जो तस्वीर थी आदा ने मिटा दी

हज़रत ने वहीं ख़ाक पे दस्तार गिरा दी

ज़ैनब को सदा दी कि बहन मुर्ग़ए अकबर

भावज से ख़बरदार सफ़र कर गए अकबर

लिखा है कि नारा वहां शब्बीर ने मारा

जिस नारे से सब दश्त बला हल गया सारा

घबराता था यूं शेर इलाही का वो प्यारा

बच्चा कहीं जूं शेर का खोता है क़ज़ारा

जब करते थे ग़ल हाय अली वाय अला

था झूम रहा अर्श जनाब अहदी का

कहते थे मुलक शाह को अकबर से मिलादे

या तो हमें दुनिया में उतरने की रज़ा दे

दुनिया की रज़ा दे हमें और हुक्म दग़ा दे

इन ज़ालिमों को सफ़ा-ए-हस्ती से मिटा दे

याक़ूब है ये दश्त है बैत-उल-हुज़न इस का

हाँ जलद मिला यूसुफ़ गुल पैरहन इस का

ख़ालिक़ की सदा आई फ़रिश्तों को कि जाओ

मुर्दा उसे फ़र्ज़ंद काले जाके दिखाओ

नाशाद को बफड़े हुए बेटे से मिलाओ

शब्बीर अगर माने तो दुख दर्द बटाओ

है इस पे मुसल्लत क्या इस वास्ते ग़म को

ये सब्र हुसैन इबन अली भाता है हम को

यां मुत्तसिल फ़ौज जो पहुंचे शहि ज़ी जाह

हर एक से कहते थे बताओ मुझे ललला

जिस ख़ाक पे तुम सब ने गिराया है मरामाह

ग़म होगया बेटा मिरा रोको ना मरी राह

है हक़ बह तरफ़ अब जो मिरा ख़ाल दिगर है

दुनिया में किसी बाप का अकबर सा पिसर है

तुम सब ने मिरा लाल है किस तरह का मारा

सुनता हूँ कि मजरूह कलेजा क्या सारा

मुझ बाप को देखो कि रहा महव नज़ारा

दिल हल गया जब या अबिता इस ने पुकारा

लो पास का इंसान दिखाई नहीं देता

अब कुछ मुझे आँखों से सुझाई नहीं देता

सब घर तो मिरा साफ़ क्या तुम ने जफ़ा से

कैसे मरे दिलदार किए ज़बह प्यासे

जिस शख़्स में हूँ रहम के आसार ज़रा से

वो हाथ मिरा थाम ले अब डर के ख़ुदा से

जिस राह सुधारा वो मुझे राह बता दो

बस दूर से लाशा अली अकबर का दिखा

डरते हो तो आओ मरी शमशीर-ओ-सुपर लो

अंदेशा जो हो दिल में तो क़ैदी मुझे करलो

तुम गर चलो और मुझे बीच में धरलो

दो लाल मिरा मुझ को मरे जिस्म से सरलो

सय्यद पे करो रहम मुस्लमान समझ कर

क्या तरस सभी आता नहीं इंसान समझ कर

नागाह सदा दूर से ये कान में आई

क्यों क़िबला-ए-हाजात बड़ी देर लगाई

किस वक़्त में हज़रत ने मरी याद भलाई

इस की ख़बर अम्मां ने भी पाई कि ना पाई

वो सामने मेरे मलकुलमौत खड़ा है

जल्द आईए अब दर्द कलेजे में बड़ा है

सन कर ये सदा कुछ तो हुआ दिल को सहारा

चलाए कि है ढूँढ रहा बाप तुम्हारा

हम क्या करें बेटा नहीं कुछ जुर्म हमारा

आख़िर हुआ जाकर ये सर नाश गुज़ारा

देखा कि है बैठा हुआ घोड़ा तो ज़मीं पर

तन ख़ाक पे गर्दन है धुरी ख़ाना ज़ीं पर

छाती पे धरा हाथ है और ख़ूँ है उबलता

थम थम के लहू सांस के हमराह निकलता

मुँह ज़र्द है जिस तरह कि ख़ुरशीद हो ढलता

माथे पे अर्क़ आया है और दिल है उछलता

मुश्ताक़ पिदर देर से हर चंद हैं आँखें

खुलती हैं कभी और कभी बंद हैं आँखें

बेसाख़ता इस दम शहि मज़लूम पुकारे

लो जान पिदर आए हैं हम पास तुम्हारे

बोला ना गया जब किए अब्रू से इशारे

रख दीजिए नालैन को सीने पे हमारे

जीने की ना दुनिया की ना कौसर की हवस है

इस वक़्त मुझे ज़ानवे मादर की हवस है

हज़रत ने उसे गोद में पहले तो सँभाला

फिर फूल के मानिंद उठा घोड़े पे डाला

अकबर ने कहा आह मिरा ज़ख़म है आलाम

शहि ने कहा है नाविक दल आवर ये नाला

इस दर्द की शिद्दत में जो ले जाऊं तो क्यों कर

जीता हो अम्मां तक तुम्हें पहुंचाऊं तो क्यों कर

गर दर्द सही है तो गुज़र जाओगे अकबर

माँ तक भी ना पहुंचोगे कि मर जाओ गे अकबर

बेकस पिदर पीर को कर जाओ गे अकबर

में भी वहीं जाऊंगा जिधर जाओगे अकबर

ये आख़िरी दीदार उसे दिखलाओ तो बेहतर

जीते हुए माँ तक जो पहुंच जाओ तो बेहतर

थे बासिर उर्यां तो हुसैन आप रवाना

ख़ुद बाग को थामे हुए सुलतान ज़माना

कहते थे कि घोड़े क़दम आहिस्ता बढ़ाना

तो ज़ख़म ना अकबर के कलेजे का दिखाना

फ़र्ज़ंद का बानो के बदन चोर है घोड़े

ये मुझ को दिखाना उसे मंज़ूर है घोड़े

घोड़ा तो रवां होता था हर चंद को थम थम

हर गाम पे बस टूटने लगता था यहां दम

दस बीस क़दम इस ने उठाए ना थे पैहम

यां होने लगा सांस काब स और ही आलम

ख़ेमा रहा नज़दीक तो उतनी ही तकां में

रूह अली अकबर गई गुलज़ार खियां में

पांव ने यहां देख लिया शाह का साया

चलाई कि साहिब कहो यूसुफ़ मिरा आया

तुम ने उसे किस वास्ते घोड़े पे लिटाया

क़रबोस पे रुख़सार है क्यों इस ने झुकाया

वो दौर वो ताक़त वो तवानाई कहाँ है

लटकाए हुए हाथ मिरा शेर जवाँ है

मुर्दा नज़र आया उसे जब मुत्तसिल आए

मर्दे ही से मिलने के लिए हाथ बढ़ाए

नामूस मुहम्मद ने अजब शोर मचाए

मिल जाये किसे वो हाथों पे उठा खे़मे लाए

इस शेर के मर्दे पे भी इक रोब बड़ा था

बस ख़ून में डूबा हुआ इक चांद पड़ा था

बानो ने ग़रज़ बैठ के ज़ानू पे लिया सर

गेसू को उठा चांद सा मुखड़ा किया बाहर

चलाई कि दो साहबो प्रसा मुझे आकर

नोहा में पढ़ूं तुम कहो है है अली अकबर

बर्बाद यहां बानो की दौलत गई लोगो

अठारह बरस की मरी मेहनत गई लोगो

अकबर वो दानाईआं अब लगती हैं जूं तीर

जब शहि से रज़ा जंग की लाए थे बह तदबीर

मंज़ूर हूँ अम्मां से भी बख़शाईए अब शेर

करती थी ज़बां श्रम से लुकनत दम तक़रीर

मैंने कहा हम जान को वारें अली अकबर

सदक़े हुईं ये दूध की धारें अली अकबर

फिर बानो ने इस ज़ख़म से हाथ अपना उठाया

मुँह अपना झुका कर उसे आँखों से लगाया

बस उलफ़त मादर ने जो इक जोश सा खाया

अकबर का दिल इस ज़ख़म के रस्ते निकल आया

सब देखते थे फ़र्त मुहब्बत के चलन से

तादेर वो लिपटा रहा मादर के दहन से

और आ:य सदा पानी ना हाथ आया ज़रा सा

अम्मां में प्यासा रहा प्यासा रहा प्यासा

अब छोड़ दो दामन मिरा ए हक़ की शनासा

अब मरने को जाता है मुहम्मद का नवासा

लाशे पे मरे आप ने वो बैन किया है

इस रूह पर अरमान को बेचैन किया

ये सुनते ही ग़श होगई बानो जिगर अफ़्गार

सब गर्द खड़े होगए घबरा के बस इक बार

फ़ुर्सत जो मिली इतनी तो बाद यदा-ए-ख़ूँ

लाशे को उठा ले गए बाहर शहि इबरार

बाक़ी अली असग़र के सिवा कोई नहीं है

अब ख़ंजर बेदाद-ओ-गिलोय शहि दें है

जिस साल कहे वस्फ़ ये हमशकल नबी के

सन बारह से उनचास थे हिज्री नबवी के आगे तो ये अंदाज़ा सुख़न थे ना किसी के

अब सब मुक़ल्लिद हुए इस तर्ज़ नवी के

दस में कहूं सौ में कहूं ये दर्द है मेरा

जो जो कहे इस तर्ज़ में शागिर्द है मेरा

हाँ क्लिक बस अब आगे नहीं ताक़त तहरीर

हो और ज़्यादा तिरी तहरीर में तासीर

कहता है ज़मीर अब कि बराए शहि दिल गीर

महबूब अली जान नबी हज़रत शब्बीर

इस मरसीए का बस ख़ुदा मुझ को सुलह दे

अकबर का तसद्दुक़ मरी औलाद जला दे

(3506) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai In Hindi By Famous Poet Meer Muzaffar Husain Zameer. Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai is written by Meer Muzaffar Husain Zameer. Complete Poem Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai in Hindi by Meer Muzaffar Husain Zameer. Download free Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai Poem for Youth in PDF. Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai is a Poem on Inspiration for young students. Share Kis Nur Ki Majlis Mein Meri Jalwagari Hai with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.