फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
न समझा गया अब्र क्या देख कर
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए