'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
न समझा गया अब्र क्या देख कर