दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
दरपेश यानी 'मीर' है जाना जहाँ से भी
लश्कर में है मबीत इसी बात के लिए
कहते हैं लोग कूच है कल सुब्ह याँ से भी
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तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
इतने भी हम ख़राब न होते रहते