हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
इन बुल-हवसों में कोई मुझ सा भी ग़नी है
हर अश्क मिरा है दुर-ए-शहवार से बेहतर
हर लख़्त-ए-जिगर रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी है
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न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
न समझा गया अब्र क्या देख कर
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश