हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
गर्दन को अपनी मू से बारीक-तर करो तुम
क्या लुत्फ़ है वगर्ना जिस दम वो तेग़ खींचे
सीना सिपर करें हम क़त-ए-नज़र करो तुम
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दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री