हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
न शब को जागते रहने का इज़्तिराब करो
ख़ुदा करीम है उस के करम से रख कर चश्म
दराज़ खींचो किसू मय-कदे में ख़्वाब करो
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न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब