ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
चाहता तो मिरे तईं इमदाद
पर मुरव्वत कहाँ की है ऐ 'मीर'
तू ही मुझ दिल-जले को कर इरशाद
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कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
न समझा गया अब्र क्या देख कर
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला