कोह ओ सहरा भी कर न जाए बाश
आज तक कोई भी रहा है याँ
है ख़बर शर्त 'मीर' सुनता है
तुझ से आगे ये कुछ हुआ है याँ
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हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
इतने भी हम ख़राब न होते रहते