मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हर दम सदा यही थी दे गुज़रो टाल क्या है
पर चुप ही लग गई जब उन ने कहा कि कोई
पूछो तो शाह-जी से उन का सवाल क्या है
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मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
इतने भी हम ख़राब न होते रहते