न समझा गया अब्र क्या देख कर
हुआ था मिरी चश्म-ए-तर की तरफ़
टपकता है पलकों से ख़ूँ मुत्तसिल
नहीं देखते हम जिगर की तरफ़
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वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली