फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं
चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ए'तिबार रखते हैं
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न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए