फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मसनद पे नाज़ की जो तेवरी चढ़ा के बैठे
क्या ग़म उसे ज़मीं पर बेबर्ग-ओ-साज़ कोई
ख़ार-ओ-ख़सक ही क्यूँ न बरसों बिछा के बैठे
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तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन