ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
पंद-गो यूँही न कर अब ख़लल औक़ात के बीच
ज़िंदगी किस के भरोसे पे मोहब्बत मैं करूँ
एक दिल ग़म-ज़दा है सो भी है आफ़ात के बीच
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न समझा गया अब्र क्या देख कर
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया