इतने भी हम ख़राब न होते रहते
काहे को ग़म-ए-अलम से रोते रहते
सब ख़्वाब-ए-अदम से चौंकने के हैं वबाल
बेहतर था यही कि वहीं सोते रहते
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गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
सुना है चाह का दावा तुम्हारा