तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
जब आन के पास बैठे रूठे निकले
क्या कहिए वफ़ा एक भी वअ'दा न किया
ये सच है कि तुम बहुत झूटे निकले
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यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
न समझा गया अब्र क्या देख कर
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
इतने भी हम ख़राब न होते रहते