इतने भी हम ख़राब न होते रहते
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
न समझा गया अब्र क्या देख कर
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला