हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी