ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वजूद था
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मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा