है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं
Allama Iqbal
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रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम