हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और
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इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद