क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है
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क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
मोहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बे-दिमाग़ी है
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए