मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
शेर ने की ये तमन्ना के बने फ़न मेरा
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धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
मरते हैं आरज़ू में मरने की
है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त