पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
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कोई उम्मीद बर नहीं आती
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला