ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए