वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल