उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
फ़रियाद की कोई लय नहीं है
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
हाँ अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़्त
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है