उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
अक़्ल-ए-शरीफ़ से ये निहायत बईद है
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दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
उमीद है हमें फ़र्दा हो या पस-ए-फ़र्दा
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
दुनिया में यही चोर बनाता है असस को
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
आप आए थे याँ जफ़ा के लिए
सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है