आहों से अयाँ बर्क़-फ़िशानी हो जाए
ग़ुल रअ'द का नालों की ज़बानी हो जाए
अश्कों से झड़ी लगे वो शह के ग़म की
सावन की घटा शर्म से पानी हो जाए
Rahat Indori
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इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है
सुग़रा का मरज़ कम न हुआ दरमाँ से
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा
आफ़ाक़ से उस्ताद-ए-यगाना उठ्ठा
अदना से जो सर झुकाए आला वो है
हम-शान-ए-नजफ़ न अर्श-ए-अनवर ठहरा
इस दर पे हर एक शादमाँ रहता है
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है
इस बज़्म में अर्बाब-ए-शुऊर आए हैं
है रज़्म सरापा तो ज़बाँ और ही है