सुग़रा का मरज़ कम न हुआ दरमाँ से
ऐ ख़िज़्र के रहबर मुझे गुमराह न कर
इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
इस बज़्म में अर्बाब-ए-शुऊर आए हैं
हर चश्म से चश्मे की रवानी हो जाए
इस दर पे हर एक शादमाँ रहता है
क्या क़ामत-ए-अहमद ने ज़िया पाई है
परवाने को धुन शम्अ को लौ तेरी है
है रज़्म सरापा तो ज़बाँ और ही है
या शाह-ए-नजफ़ थाम लो इस किश्वर को
आदा को उधर हराम का माल मिला
फ़रमान-ए-अली लौह-ओ-क़लम तक पहुँचा