क्या क़ामत-ए-अहमद ने ज़िया पाई है
चेहरे में अजब नूर की ज़ेबाई है
मुसहफ़ पे न क्यूँ फ़ख़्र हो इस सूरत को
क़ुरआन से पहले ये किताब आई है
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आहों से अयाँ बर्क़-फ़िशानी हो जाए
अदना से जो सर झुकाए आला वो है
इस दर पे हर एक शादमाँ रहता है
है रज़्म सरापा तो ज़बाँ और ही है
परवाने को धुन शम्अ को लौ तेरी है
इस बज़्म को जन्नत से जो ख़ुश पाते हैं
सुग़रा का मरज़ कम न हुआ दरमाँ से
इस बज़्म में अर्बाब-ए-शुऊर आए हैं
या शाह-ए-नजफ़ थाम लो इस किश्वर को
हम-शान-ए-नजफ़ न अर्श-ए-अनवर ठहरा
बिलक़ीस पासबाँ है ये किस की जनाब है
फिर चर्ख़ पर आसमान-ए-पीर आया है