मिरी उदासी का ज़र्द मौसम
अगर किसी दिन
मिरी बुझी आँख के किनारे
भिगो भिगो कर
अना के पाताल की किसी तह में
एक पल को ठहर गया तो
मुझे यक़ीं है
कि टूटते दिल में ख़्वाहिशों का
कोई छनाका
मिरा बदन भी न सुन ले
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वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा
मिरा होना न होना
हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी
दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो
मेरे कमरे में उतर आई ख़मोशी फिर से
फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा
चुनती हैं मेरे अश्क रुतों की भिकारनें
आज तन्हाई ने थोड़ा सा दिलासा जो दिया
लबों पे हर्फ़-ए-रजज़ है ज़िरह उतार के भी