हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें
हमारी ख़ातिर कोई सितारा नहीं चलेगा
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अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं
ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले
नया है शहर नए आसरे तलाश करूँ
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं
कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे
दिसम्बर मुझे रास आता नहीं
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
मा'रका अब के हुआ भी तो फिर ऐसा होगा
यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन'