जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ
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भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं
कठिन तन्हाइयाँ से कौन खेला मैं अकेला
जुगनू गुहर चराग़ उजाले तो दे गया
ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा
ये पिछले इश्क़ की बातें हैं
ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले
जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा
क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच