कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे
शाम ढल जाए तो 'मोहसिन' तुम भी घर जाया करो
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वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
गहरी ख़मोश झील के पानी को यूँ न छेड़
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले
भूल जाओ मुझे
लोगो भला इस शहर में कैसे जिएँगे हम जहाँ
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा
यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन'
किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर
मा'रका अब के हुआ भी तो फिर ऐसा होगा
ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शोला-बदन तू