कितने लहजों के ग़िलाफ़ों में छुपाऊँ तुझ को
शहर वाले मिरा मौज़ू-ए-सुख़न जानते हैं
Anwar Masood
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Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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मैं ने अक्सर ख़्वाब में देखा
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
उस सम्त न जाना जान मिरी
आज तन्हाई ने थोड़ा सा दिलासा जो दिया
अज़ाब-ए-दीद में आँखें लहू लहू कर के
शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
तिरे बदन से जो छू कर इधर भी आता है
बहुत दिनों बा'द
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
अब वो तूफ़ाँ है न वो शोर हवाओं जैसा