मौसम-ए-ज़र्द में एक दिल को बचाऊँ कैसे
ऐसी रुत में तो घने पेड़ भी झड़ जाते हैं
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उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
अब वो तूफ़ाँ है न वो शोर हवाओं जैसा
हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
ख़ुमार-ए-मौसम-ए-ख़ुश्बू हद-ए-चमन में खुला
शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा