पलट के आ गई ख़ेमे की सम्त प्यास मिरी
फटे हुए थे सभी बादलों के मश्कीज़े
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मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
ख़ुमार-ए-मौसम-ए-ख़ुश्बू हद-ए-चमन में खुला
तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा
एक पल में ज़िंदगी भर की उदासी दे गया
नया है शहर नए आसरे तलाश करूँ
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी
कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं
मुझे अब डर नहीं लगता