शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
जिस तरह ताज़ा लहू चमके नई तलवार पर
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जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ
अज़ाब-ए-दीद में आँखें लहू लहू कर के
बहुत दिनों बा'द
ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ
हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ
मौसम-ए-ज़र्द में एक दिल को बचाऊँ कैसे
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना