वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
गली में फिर खिलौने बेचने वाला न आ जाए
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ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
भूल जाओ मुझे
चलो छोड़ो
फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
मिरा होना न होना
कठिन तन्हाइयाँ से कौन खेला मैं अकेला
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं