वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
अभी तो ख़ुद से तक़ाज़े थे इख़्तिसार के भी
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एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा
आज तन्हाई ने थोड़ा सा दिलासा जो दिया
फ़ज़ा का हब्स शगूफ़ों को बास क्या देगा
ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितमगरी की
ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
सिर्फ़ हाथों को न देखो कभी आँखें भी पढ़ो
लबों पे हर्फ़-ए-रजज़ है ज़िरह उतार के भी
उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर
ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ