ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा
अभी तो सोए थे मक़्तल को सुर्ख़-रू कर के
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उस सम्त न जाना जान मिरी
उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर
सिर्फ़ हाथों को न देखो कभी आँखें भी पढ़ो
तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
मेरे कमरे में उतर आई ख़मोशी फिर से
मौसम-ए-ज़र्द में एक दिल को बचाऊँ कैसे
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
तुम्हें किस ने कहा था
ख़ुमार-ए-मौसम-ए-ख़ुश्बू हद-ए-चमन में खुला
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले