ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी
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तुम्हें किस ने कहा था
हम जो पहुँचे सर-ए-मक़्तल तो ये मंज़र देखा
ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
मैं ने अक्सर ख़्वाब में देखा
क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल
ये कह गए हैं मुसाफ़िर लुटे घरों वाले
दिसम्बर मुझे रास आता नहीं
क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच
हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें
ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर