जो लड़खड़ाए क़दम मय-कदे में मस्तों के
बग़ल में हज़रत-ए-नासेह थे बढ़ के थाम लिया
Mir Taqi Mir
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Parveen Shakir
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निकलना आरज़ू का दिल से मालूम
ईमान की तो ये है कि ईमान अब कहाँ
क्यूँ किया करते हैं आहें कोई हम से पूछे
ये ग़म-कदा है इस में 'मुबारक' ख़ुशी कहाँ
मेरे सर से क्या ग़रज़ सरकार को
कब वो आएँगे इलाही मिरे मेहमाँ हो कर
मोहब्बत में वफ़ा की हद जफ़ा की इंतिहा कैसी
ताज़ा आज़ार का अरमान कहाँ जाता है
यूँ ये बदली काली काली जाएगी
ख़बर इतनी तो है झोंके तिरे बाद-ए-ख़िज़ाँ पहुँचे
किसी की तमन्ना निकलती रही
नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें