अभी दिखाओ न तस्वीर-ए-ज़िंदगी इस को
ये बचपना है अभी मुस्कुराना चाहता है
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बदन की क़ैद से बाहर ठिकाना चाहता है
सिलसिला लफ़्ज़ों की सौग़ात का भी टूट गया
इस क़दर सच्चाई से बेज़ार दुनिया हो गई
मशक़्क़त की तपिश में जिस्म का लोहा गलाते हैं
वो आज़माएँ मुझे उन को आज़माऊँ मैं
फ़साद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी
बीच समुंदर रहता हूँ
पता चला कि मिरी ज़िंदगी में लिक्खा था
दावे बुलंदियों के करें किस ज़बाँ से हम
उम्र गुज़री इसी मैदान को सर करने में