फ़साद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी
सफ़ेद-पोशों की बातें हैं क्या बताऊँ मैं
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वो आज़माएँ मुझे उन को आज़माऊँ मैं
सिलसिला लफ़्ज़ों की सौग़ात का भी टूट गया
बदन की क़ैद से बाहर ठिकाना चाहता है
दावे बुलंदियों के करें किस ज़बाँ से हम
इस क़दर सच्चाई से बेज़ार दुनिया हो गई
पता चला कि मिरी ज़िंदगी में लिक्खा था
उम्र गुज़री इसी मैदान को सर करने में
मशक़्क़त की तपिश में जिस्म का लोहा गलाते हैं
अभी दिखाओ न तस्वीर-ए-ज़िंदगी इस को
बीच समुंदर रहता हूँ